सूर्य प्रकाश शुक्ल, लखनऊ: फतेहपुर मुख्यालय से करीब 65 किमी दूर यमुना पुल के छोर पर निषाद बाहुल्य गांव महावतपुर असहट है। यहां रहने वाले राम नरेश निषाद मछुआरा कल्याण समिति चलाते हैं। कहते हैं कि यमुना में मछली के शिकार के लिए जाल किसका पड़ेगा, यह ठेकेदार तय करता है। इस व्यवस्था के खिलाफ नेताओं के यहां अर्जी लगाते हम लोग घूम रहे हैं लेकिन सुनवाई कहीं नहीं है।
गंगा के कछार में रहने वाले मछुआ तो मछली पकड़ने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन यमुना के कछार वाले ठेकेदार की मर्जी के सहारे हैं। वजह, यमुना में मछली पकड़ने के लिए ठेका उठता है। निषाद बहुल गांवों को सुविधाओं और भागीदारी के लिए अब भी खेवनहार का इंतजार है।
फतेहपुर जिला गंगा-यमुना के दोआब में बसा है। उत्तर में गंगा की धार है, तो दक्षिण में दूर-दूर तक यमुना का विस्तार। गंगा का एक किनारा जहां रायबरेली जिले में है, तो यमुना नदी बांदा और फतेहपुर की सीमा तय करती है। दोनों ओर दूर-दूर तक निषादों की आबादी वाले गांव हैं। सामाजिक-आर्थिक विस्तार के सपने भले ही अब तक धुंधले हो लेकिन फतेहपुर व बांदा लोकसभा की सियासी मझधार इनके ही वोटों से पार होती है।
घुरवल के राम कृपाल निषाद कहते हैं कि सियासी दलों के लिए हम महज वोटबैंक हैं। चुनाव आते ही समाज के नेता सक्रिय हो जाते हैं और खत्म होने के बाद पलट कर नहीं आते। भिठौरा ब्लॉक के हाजीपुर के रहने वाले छेदीलाल व रामस्वरूप निषाद का मानना है कि निषाद पार्टी के आने के बाद सियासी सक्रियता जरूर बढ़ी है, लेकिन आर्थिक सुरक्षा व पहचान के सवाल अब भी मुखर नहीं हो पाए हैं।
सिर्फ चार जिलों में मछली का ठेका
प्रदेश में तीस से ज्यादा छोटी और बड़ी नदियां हैं। लेकिन मछली पकड़ने का ठेका सिर्फ और सिर्फ यमुना नदी में उठता है और वह भी सिर्फ चार जिलों इटावा, बांदा, फतेहपुर और कौशांबी में। यहां एक साल ठेका बांदा जिले से उठता है और दूसरे साल फतेहपुर से। राम नरेश निषाद कहते हैं कि बांदा जिले से ठेका उठा तो फतेहपुर के निषाद नदी में शिकार नहीं कर सकते और अगर फतेहपुर से ठेका उठा तो बांदा के लोग शिकार से वंचित रहते हैं। ठेकेदार तय करता है कि कौन-कौन मछली पकड़ेगा। तय लोगों के अतिरिक्त दूसरा कोई यमुना में जाल नहीं डाल सकता। जब नदी में मछली पकड़ने का ठेका बंद होगा, तभी यहां के निषादों को सही मायनों में आजादी मिलेगी।
इस ठेके को रद्द करने के लिए वह कई बार पूर्व सांसद साध्वी निरंजन ज्योति और निषाद पार्टी के मुखिया डॉ़ संजय निषाद से मिल कर ज्ञापन दे चुके हैं। लेकिन, कोई सुनवाई नहीं हुई। रायपुर भसरावल के पूर्व प्रधान छेदीलाल निषाद बताते हैं कि इस साल फतेहपुर से "70-70 लाख के दो ठेके सहकारी समितियों (महावतपुर असहट सहाकारी समिति और सैदपुर सहकारी समिति) के नाम आवंटित हुए हैं। कहने को तो ठेके निषादों की सहकारी समितियों को मिले हैं, लेकिन उनके नाम सिर्फ फाइलों में हैं। उनके पीछे फतेहपुर के दो बड़े मछली ठेकेदार हैं। सच्चाई यह है कि समिति के सदस्य भी मछली पकड़ने की मजदूरी करते हैं।
शिकार पर तय होती है मजदूरी
यमुना के तट पर बसे गांवों में से सिर्फ छह गांव (असहट महावतपुर, पिपरहा डेरा, चंदनापुर, नरौली, सैदपुर और मढ़ौली) ऐसे हैं, जहां के लोग मछली पकड़ते हैं। असहट के मंगलू निषाद का कहना है कि इन छह गांवों की आबादी करीब 18 हजार के करीब है। लेकिन मछली पकड़ने (यानी शिकार करने) का काम महज दो से तीन हजार लोगों को ही मिलता है। मजदूरी भी मछलियों के वजन पर निर्भर करती है।
महावतपुर के देवी प्रसाद निषाद बताते हैं कि एक सामान्य नाव पर चार लोग रहते हैं। यह लोग 14 से 16 घंटे में 20 से 25 किलोग्राम मछली का शिकार करते हैं। पकड़ी गई मछली निषाद घाट के किनारे ठेकेदारों की दुकानों (आढ़त) पर ही बेचते हैं, जहां मछली की प्रजाति के हिसाब से औसतन 50 रुपये किलो का दाम मिलता है। यह भुगतान भी दूसरे दिन मिलता है। कभी-कभी इन लोगों के हाथ टेगन, सूती और मैगसी मछलियां लग जाती हैं तो उन्हें उनकी अच्छी कीमत मिल जाती है, यह मछलियां ठेकेदार तीन सौ रुपये प्रति किलो की दर से खरीद लेते हैं। हालांकि, बारिश के साथ ही संकट शुरू हो गया है, क्योंकि अब नदी में नहीं उतर सकते।
किनारे पर ही लगी हैं 'सरकारी नावें'
मछुआरों को सशक्त करने के लिए बनी मत्स्य विभाग की योजनाओं का जमीनी अमल भी कमजोर दिखता है। महावतपुर असहट के प्रधान ज्ञानचंद बताते हैं कि जब जानकारी मिली कि सरकार निषादों को 'निषाद राज बोट' योजना के तहत मोटर वाली बोट देगी, तो उसी गांव के करीब 22 लोगों ने बोट के लिए आवेदन किया। लेकिन, लॉटरी में सिर्फ चार लोगों (दिनेश निषाद, शैलेंद्र निषाद, प्रकाश और हिमेश निषाद) के नाम खुले। इन चारों को नाव तो मिली, वह किसी लायक नहीं निकली। नदी में उतरते ही चारों नावें डूब गईं।
कई कोशिशों के बाद भी ये नावें नदी में नहीं उतर सकीं तो उन्हें किनारे पर छोड़ दिया गया...जो आज भी वह किनारों पर ही पड़ी हैं। ज्ञान चंद्र निषाद की मानें तो उनकी आपूर्ति करने वालों ने सरकार से एक नाव का 27 हजार लिया था।
फतेहपुर जिला मुख्यालय से करीब 55 किमी दूरी पर बसी 21 हजार आबादी वाली ग्रामसभा रायपुर असरवाल में भी निषादों की संख्या बहुतायत है। 32 पुरवा वाली इस ग्रामसभा के 85% लोग अब भी पेट पालने के लिए मजदूरी पर निर्भर हैं। 'पीएम आवास' व 'हर घर नल से जल' जैसी योजनाओं ने भले ही यहां दस्तक दी हैं लेकिन, सुविधाओं, भागीदारी और बेहतरी की आस अब भी है। पूरी ग्रामसभा में शायद ही अब तक सरकारी नौकरी ने किसी का दरवाजा खटखटाया है। गंगा-यमुना के कछार में निषादों के अधिकतर गांवों की कहानी कुछ ऐसी ही नजर आती है।
मूंज के बाध व मजदूरी से आस
घुरवल (विजयपुर ब्लाक) के विक्रम निषाद बताते हैं कि मछली पकड़ने का काम चंद लोगों के हाथों तक सीमित होता है। बाकी निषादों में महज 5% ऐसे परिवार होंगे, जिनके पास खेती है, वह भी किसी के पास एक बीघा तो किसी के पास दो बीघा। इसलिए आजीविका का एक बड़ा साधन मजदूरी है। इसके चलते गांवों के ज्यादातर घरों में ताले लटके हैं। लोग मजदूरी के लिए सूरत, पंजाब और मुंबई की ओर पलायन कर गए हैं। जो परिवार यहां बचे हैं, वहां से भी लोग लखनऊ, रायबरेली और फतेहपुर में मजदूरी करने जाते हैं।
उधर, गंगा के कछार में स्थित गांवों (भिटौरा, हाजीपुर, भिटौरी, नरही, टेडवा, मौजवाबाद, सिहारे और गढ़ी) में आम दिनों में नदी के किनारों पर उगी मूंज से बाध बना बेचकर गुजारा होता है। तारापुर भिटौरा निवासी अनिल कुमार निषाद बताते हैं कि चार-पांच साल पहले तक नाव घाट चलते थे। हालांकि, उन घाटों के ठेके भी दूसरी जाति के लोगों के नाम आवंटित होते थे। लेकिन निषादों को नाव चलाकर कुछ आमदनी हो जाती थी। अब नाव घाट के ठेके भी बंद हो चुके हैं। पहले बालू और मौरंग के ठेके निषादों को मिलते थे। लेकिन बसपा सरकार ने यह अनिवार्यता खत्म की तो यहां भी भागीदारी खत्म हो गई।
पढ़ाई-दवाई और रोशनी का संघर्ष
खागा से बांदा जाने वाले मार्ग पर विजयपुर ब्लॉक है। यहां पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (PHC) है। फतेहपुर जिले में यमुना के तट पर बसे आखिरी गांव चंदबाइन डेरा से इस पीएचसी की दूरी करीब 30 किलोमीटर है। यहां से 12 किमी दूर स्थित भसरावल गांव के पूर्व प्रधान छेदीलाल निषाद बताते हैं कि उनके यहां से विजयपुर पीएचसी की दूरी 18 किलोमीटर है। स्थित गंभीर हो तो जिला अस्पताल जाना होता है, जो यहां से करीब 55 किलोमीटर दूर है।
हाल में ही काशीपुर के संतलाल की पत्नी पार्वती को सांप में डस लिया था। लेकिन, दूरी और रास्ता ठीक न होने की वजह से पार्वती अस्पताल तक पहुंचने से पहले ही चल बसी। चंदबाइन डेरा से करीब 15 किमी खागा की तरफ आने पर जालंधरपुर गांव है। यहां के दयाशंकर निषाद बताते हैं कि ट्रांसफॉर्मर जला तो बदलने में करीब डेढ़ महीने लग गए। इन गांवों से आठवीं के बाद पढ़ाई के लिए बच्चों के लिए सबसे नजदीकी विकल्प करीब 20 किमी दूर स्थित विजयपुर का इकलौता सरकारी इंटर कॉलेज है।
पुरुषों में शराब की लत भी समस्या बढ़ा रही है। असहट निवासी सियाराम निषाद की पत्नी गुलरिया बताती हैं कि कहने को तो उनके गांव से दो किमी दूर किशनपुर में शराब का ठेका है, लेकिन गांव में ही चार जगह शराब की अवैध दुकानें खुली हैं। बीडीसी सदस्य सरोज देवी कहती हैं कि शराब की सहज उपलब्धता नई पीढ़ी को आसानी से अपनी ओर खींच रही हैं। पुलिस-प्रशासन को और सख्ती बरतनी चाहिए।
निषादों को मिले जल क्षेत्र में कानूनी अधिकार
नैशनल फेडरेशन ऑफ स्मॉल स्केल फिश वर्कर्स के अध्यक्ष कोलकाता के प्रदीप चटर्जी कहते हैं कि निषाद समुदाय की कोई कानूनी पहचान नहीं है। आम किसानों के पास अपनी जमीन होती है, जिस पर उसका अधिकार व कानूनी पहचान होती है। किसानों की तरह ही निषादों को भी जलक्षेत्र का कानूनी अधिकार मिले। चटर्जी की संस्था मछुओं की सामाजिक-आर्थिक बेहतरी पर काम कर रही है।
प्रदीप कहते हैं देशभर में निषादों की हालात एक जैसी ही है। वह लीज पर तालाब लेकर मछली पालते और पकड़ते हैं। लेकिन, किसी दुर्घटना में अगर मछलियां मर जाएं, तो उनके पास सुरक्षा का कोई कवच नहीं है। जबकि किसानों का फसल बीमा होता है, मुआवजा मिलता है। निषादों को मछलियों के सुरक्षा का अधिकार भी मिलना चाहिए। यदि निषाद समुदाय के लोग किसी झील या नदी में मछली पालते हैं। लेकिन, बाद में वहां कोई बड़ा उद्योग विकसित हो जाता है या फिर उसे पर्यटक स्थल के रूप में विकसित किया जाता है और निषादों को वहां से हटा दिया जाता है। इसलिए जरूरी है कि निषादों को जलक्षेत्र का अधिकार दिया जाए।
गंगा के कछार में रहने वाले मछुआ तो मछली पकड़ने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन यमुना के कछार वाले ठेकेदार की मर्जी के सहारे हैं। वजह, यमुना में मछली पकड़ने के लिए ठेका उठता है। निषाद बहुल गांवों को सुविधाओं और भागीदारी के लिए अब भी खेवनहार का इंतजार है।
फतेहपुर जिला गंगा-यमुना के दोआब में बसा है। उत्तर में गंगा की धार है, तो दक्षिण में दूर-दूर तक यमुना का विस्तार। गंगा का एक किनारा जहां रायबरेली जिले में है, तो यमुना नदी बांदा और फतेहपुर की सीमा तय करती है। दोनों ओर दूर-दूर तक निषादों की आबादी वाले गांव हैं। सामाजिक-आर्थिक विस्तार के सपने भले ही अब तक धुंधले हो लेकिन फतेहपुर व बांदा लोकसभा की सियासी मझधार इनके ही वोटों से पार होती है।
घुरवल के राम कृपाल निषाद कहते हैं कि सियासी दलों के लिए हम महज वोटबैंक हैं। चुनाव आते ही समाज के नेता सक्रिय हो जाते हैं और खत्म होने के बाद पलट कर नहीं आते। भिठौरा ब्लॉक के हाजीपुर के रहने वाले छेदीलाल व रामस्वरूप निषाद का मानना है कि निषाद पार्टी के आने के बाद सियासी सक्रियता जरूर बढ़ी है, लेकिन आर्थिक सुरक्षा व पहचान के सवाल अब भी मुखर नहीं हो पाए हैं।
सिर्फ चार जिलों में मछली का ठेका
प्रदेश में तीस से ज्यादा छोटी और बड़ी नदियां हैं। लेकिन मछली पकड़ने का ठेका सिर्फ और सिर्फ यमुना नदी में उठता है और वह भी सिर्फ चार जिलों इटावा, बांदा, फतेहपुर और कौशांबी में। यहां एक साल ठेका बांदा जिले से उठता है और दूसरे साल फतेहपुर से। राम नरेश निषाद कहते हैं कि बांदा जिले से ठेका उठा तो फतेहपुर के निषाद नदी में शिकार नहीं कर सकते और अगर फतेहपुर से ठेका उठा तो बांदा के लोग शिकार से वंचित रहते हैं। ठेकेदार तय करता है कि कौन-कौन मछली पकड़ेगा। तय लोगों के अतिरिक्त दूसरा कोई यमुना में जाल नहीं डाल सकता। जब नदी में मछली पकड़ने का ठेका बंद होगा, तभी यहां के निषादों को सही मायनों में आजादी मिलेगी।
इस ठेके को रद्द करने के लिए वह कई बार पूर्व सांसद साध्वी निरंजन ज्योति और निषाद पार्टी के मुखिया डॉ़ संजय निषाद से मिल कर ज्ञापन दे चुके हैं। लेकिन, कोई सुनवाई नहीं हुई। रायपुर भसरावल के पूर्व प्रधान छेदीलाल निषाद बताते हैं कि इस साल फतेहपुर से "70-70 लाख के दो ठेके सहकारी समितियों (महावतपुर असहट सहाकारी समिति और सैदपुर सहकारी समिति) के नाम आवंटित हुए हैं। कहने को तो ठेके निषादों की सहकारी समितियों को मिले हैं, लेकिन उनके नाम सिर्फ फाइलों में हैं। उनके पीछे फतेहपुर के दो बड़े मछली ठेकेदार हैं। सच्चाई यह है कि समिति के सदस्य भी मछली पकड़ने की मजदूरी करते हैं।
शिकार पर तय होती है मजदूरी
यमुना के तट पर बसे गांवों में से सिर्फ छह गांव (असहट महावतपुर, पिपरहा डेरा, चंदनापुर, नरौली, सैदपुर और मढ़ौली) ऐसे हैं, जहां के लोग मछली पकड़ते हैं। असहट के मंगलू निषाद का कहना है कि इन छह गांवों की आबादी करीब 18 हजार के करीब है। लेकिन मछली पकड़ने (यानी शिकार करने) का काम महज दो से तीन हजार लोगों को ही मिलता है। मजदूरी भी मछलियों के वजन पर निर्भर करती है।
महावतपुर के देवी प्रसाद निषाद बताते हैं कि एक सामान्य नाव पर चार लोग रहते हैं। यह लोग 14 से 16 घंटे में 20 से 25 किलोग्राम मछली का शिकार करते हैं। पकड़ी गई मछली निषाद घाट के किनारे ठेकेदारों की दुकानों (आढ़त) पर ही बेचते हैं, जहां मछली की प्रजाति के हिसाब से औसतन 50 रुपये किलो का दाम मिलता है। यह भुगतान भी दूसरे दिन मिलता है। कभी-कभी इन लोगों के हाथ टेगन, सूती और मैगसी मछलियां लग जाती हैं तो उन्हें उनकी अच्छी कीमत मिल जाती है, यह मछलियां ठेकेदार तीन सौ रुपये प्रति किलो की दर से खरीद लेते हैं। हालांकि, बारिश के साथ ही संकट शुरू हो गया है, क्योंकि अब नदी में नहीं उतर सकते।
किनारे पर ही लगी हैं 'सरकारी नावें'
मछुआरों को सशक्त करने के लिए बनी मत्स्य विभाग की योजनाओं का जमीनी अमल भी कमजोर दिखता है। महावतपुर असहट के प्रधान ज्ञानचंद बताते हैं कि जब जानकारी मिली कि सरकार निषादों को 'निषाद राज बोट' योजना के तहत मोटर वाली बोट देगी, तो उसी गांव के करीब 22 लोगों ने बोट के लिए आवेदन किया। लेकिन, लॉटरी में सिर्फ चार लोगों (दिनेश निषाद, शैलेंद्र निषाद, प्रकाश और हिमेश निषाद) के नाम खुले। इन चारों को नाव तो मिली, वह किसी लायक नहीं निकली। नदी में उतरते ही चारों नावें डूब गईं।
कई कोशिशों के बाद भी ये नावें नदी में नहीं उतर सकीं तो उन्हें किनारे पर छोड़ दिया गया...जो आज भी वह किनारों पर ही पड़ी हैं। ज्ञान चंद्र निषाद की मानें तो उनकी आपूर्ति करने वालों ने सरकार से एक नाव का 27 हजार लिया था।
फतेहपुर जिला मुख्यालय से करीब 55 किमी दूरी पर बसी 21 हजार आबादी वाली ग्रामसभा रायपुर असरवाल में भी निषादों की संख्या बहुतायत है। 32 पुरवा वाली इस ग्रामसभा के 85% लोग अब भी पेट पालने के लिए मजदूरी पर निर्भर हैं। 'पीएम आवास' व 'हर घर नल से जल' जैसी योजनाओं ने भले ही यहां दस्तक दी हैं लेकिन, सुविधाओं, भागीदारी और बेहतरी की आस अब भी है। पूरी ग्रामसभा में शायद ही अब तक सरकारी नौकरी ने किसी का दरवाजा खटखटाया है। गंगा-यमुना के कछार में निषादों के अधिकतर गांवों की कहानी कुछ ऐसी ही नजर आती है।
मूंज के बाध व मजदूरी से आस
घुरवल (विजयपुर ब्लाक) के विक्रम निषाद बताते हैं कि मछली पकड़ने का काम चंद लोगों के हाथों तक सीमित होता है। बाकी निषादों में महज 5% ऐसे परिवार होंगे, जिनके पास खेती है, वह भी किसी के पास एक बीघा तो किसी के पास दो बीघा। इसलिए आजीविका का एक बड़ा साधन मजदूरी है। इसके चलते गांवों के ज्यादातर घरों में ताले लटके हैं। लोग मजदूरी के लिए सूरत, पंजाब और मुंबई की ओर पलायन कर गए हैं। जो परिवार यहां बचे हैं, वहां से भी लोग लखनऊ, रायबरेली और फतेहपुर में मजदूरी करने जाते हैं।
उधर, गंगा के कछार में स्थित गांवों (भिटौरा, हाजीपुर, भिटौरी, नरही, टेडवा, मौजवाबाद, सिहारे और गढ़ी) में आम दिनों में नदी के किनारों पर उगी मूंज से बाध बना बेचकर गुजारा होता है। तारापुर भिटौरा निवासी अनिल कुमार निषाद बताते हैं कि चार-पांच साल पहले तक नाव घाट चलते थे। हालांकि, उन घाटों के ठेके भी दूसरी जाति के लोगों के नाम आवंटित होते थे। लेकिन निषादों को नाव चलाकर कुछ आमदनी हो जाती थी। अब नाव घाट के ठेके भी बंद हो चुके हैं। पहले बालू और मौरंग के ठेके निषादों को मिलते थे। लेकिन बसपा सरकार ने यह अनिवार्यता खत्म की तो यहां भी भागीदारी खत्म हो गई।
पढ़ाई-दवाई और रोशनी का संघर्ष
खागा से बांदा जाने वाले मार्ग पर विजयपुर ब्लॉक है। यहां पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (PHC) है। फतेहपुर जिले में यमुना के तट पर बसे आखिरी गांव चंदबाइन डेरा से इस पीएचसी की दूरी करीब 30 किलोमीटर है। यहां से 12 किमी दूर स्थित भसरावल गांव के पूर्व प्रधान छेदीलाल निषाद बताते हैं कि उनके यहां से विजयपुर पीएचसी की दूरी 18 किलोमीटर है। स्थित गंभीर हो तो जिला अस्पताल जाना होता है, जो यहां से करीब 55 किलोमीटर दूर है।
हाल में ही काशीपुर के संतलाल की पत्नी पार्वती को सांप में डस लिया था। लेकिन, दूरी और रास्ता ठीक न होने की वजह से पार्वती अस्पताल तक पहुंचने से पहले ही चल बसी। चंदबाइन डेरा से करीब 15 किमी खागा की तरफ आने पर जालंधरपुर गांव है। यहां के दयाशंकर निषाद बताते हैं कि ट्रांसफॉर्मर जला तो बदलने में करीब डेढ़ महीने लग गए। इन गांवों से आठवीं के बाद पढ़ाई के लिए बच्चों के लिए सबसे नजदीकी विकल्प करीब 20 किमी दूर स्थित विजयपुर का इकलौता सरकारी इंटर कॉलेज है।
पुरुषों में शराब की लत भी समस्या बढ़ा रही है। असहट निवासी सियाराम निषाद की पत्नी गुलरिया बताती हैं कि कहने को तो उनके गांव से दो किमी दूर किशनपुर में शराब का ठेका है, लेकिन गांव में ही चार जगह शराब की अवैध दुकानें खुली हैं। बीडीसी सदस्य सरोज देवी कहती हैं कि शराब की सहज उपलब्धता नई पीढ़ी को आसानी से अपनी ओर खींच रही हैं। पुलिस-प्रशासन को और सख्ती बरतनी चाहिए।
निषादों को मिले जल क्षेत्र में कानूनी अधिकार
नैशनल फेडरेशन ऑफ स्मॉल स्केल फिश वर्कर्स के अध्यक्ष कोलकाता के प्रदीप चटर्जी कहते हैं कि निषाद समुदाय की कोई कानूनी पहचान नहीं है। आम किसानों के पास अपनी जमीन होती है, जिस पर उसका अधिकार व कानूनी पहचान होती है। किसानों की तरह ही निषादों को भी जलक्षेत्र का कानूनी अधिकार मिले। चटर्जी की संस्था मछुओं की सामाजिक-आर्थिक बेहतरी पर काम कर रही है।
प्रदीप कहते हैं देशभर में निषादों की हालात एक जैसी ही है। वह लीज पर तालाब लेकर मछली पालते और पकड़ते हैं। लेकिन, किसी दुर्घटना में अगर मछलियां मर जाएं, तो उनके पास सुरक्षा का कोई कवच नहीं है। जबकि किसानों का फसल बीमा होता है, मुआवजा मिलता है। निषादों को मछलियों के सुरक्षा का अधिकार भी मिलना चाहिए। यदि निषाद समुदाय के लोग किसी झील या नदी में मछली पालते हैं। लेकिन, बाद में वहां कोई बड़ा उद्योग विकसित हो जाता है या फिर उसे पर्यटक स्थल के रूप में विकसित किया जाता है और निषादों को वहां से हटा दिया जाता है। इसलिए जरूरी है कि निषादों को जलक्षेत्र का अधिकार दिया जाए।
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