नई दिल्ली: राजनीति भौत बुरी चीज है भाई साब। मैं तो इससे दूर ही रहता हूं। पार्क में सुबह-सुबह सीना फुला रहे श्रीमान क ने मिलते ही तपाक से यह बात कही। मैं हमेशा उन्हें गौर से सुनता हूं क्योंकि वह सीधे-सरल आदमी हैं। अपने मन की तरह-तरह की बातें सबको सुनाते रहते हैं। मैंने उन्हें प्रणाम किया था। मेरी बारी आ गई।
श्रीमान क सुबह बच्चे को स्कूल बस में बैठाने के बाद ऑफिस जाते हैं। शाम को तरकारी-भाजी लेकर घर लौटते हैं। छुट्टी के दिन सुबह-सुबह फेफड़े साफ करने के लिए पार्क आते हैं। कहने लगे, हवा भौत खराब है, यह तो पार्क है सामने, वरना क्या होता हमारा। हम सबको पेड़ लगाने चाहिए। मैंने हामी भरी। सफर में चंद मिनटों का समय घटाने के लिए बसे-बसाए बाग-बागीचे, जंगल काटने चाहिए या नहीं, यह सवाल मैंने नहीं पूछा। राजनीति हो जाने का डर था। उनने आते ही बता दिया था, राजनीति भौत बुरी चीज है। एयर प्यूरिफायर लगवा लीजिए भाई साहब। ले-देकर यही सलाह समझ में आई, मैंने दे दी। सीधे-सरल आदमी से सीधी बात ही करनी चाहिए।
बात जरा सी टेढ़ी हो जाए, कोई सवाल कर दे, हल्ला मच जाता है कि देखो-देखो राजनीति होने लगी। टीवी-अखबार वाले तो गजब ही चौकस हैं। कोई कहे न कहे, ये अपनी ओर से गदर काट देते हैं। कहीं पीने के पानी का संकट हो, स्कूलों ने मनमानी फीस लगा दी हो, अस्पताल में सुविधाएं न मिल पा रही हों, अगर किसी ने सवाल उठाया, इनकी हेडलाइन तैयार रहती है। मसलन, रेप पीड़िता बच्ची की मौत पर राजनीति तेज।
टीवी देखने वाला, अखबार पढ़ने वाला आम आदमी कन्फ्यूज हो जाता है। वह सीधा-सरल जो ठहरा। उसकी संवेदना बच्ची के साथ है। पर उसे लगता है कि राजनीति बुरी चीज है। चाय का दूसरा घूंट लेते-लेते उसे फिर लगने लगता है कि बच्ची के साथ बुरा हुआ। मन में सवाल उठने लगते हैं, क्यों बुरा हुआ? बच्ची के साथ तो कम कपड़े वाली थोथी दलील भी नहीं है। एक से दूसरे अस्पताल क्यों भटकना पड़ा? पर ये सवाल प्याले में ही डूब जाते हैं। सीधा आदमी मेहनत की कमाई वाली चाय की आखिरी बूंद खींचता है और सिर झटककर कहता है, राजनीति भौत बुरी चीज है।
ऐसे सरकस के हाथी को कौन समझाए कि जन्म से मरण तक हर चीज राजनीति से तय होती है। जिन देशों में एक बच्चे की पॉलिसी थी, वहां दूसरे का न आना राजनीति ही तय कर रही थी। स्कूल कितनी फीस लेगा, रोजगार मिलेगा या नहीं, अस्पताल में क्या सुविधाएं मिलेंगी, रेल-हवाई जहाज में डायनेमिक फेयर से जेब को हार्ट अटैक आएगा या नहीं, यह सब राजनीति ही तय करती है।
कुछ नेता भी कम चतुर सुजान नहीं हैं। माइक हाथ में आते ही ऐलान कर देते हैं कि यह राजनीति करने का मंच नहीं है। कुछ कहूंगा तो राजनीतिक विशेषज्ञ अपना काम शुरू कर देंगे। कोई नहीं पूछता कि भइये, फिर क्या करने आया है तू? राजनीति नहीं करनी तो क्या करना है? हेराफेरी? पर कौन पूछे? सवाल से राजनीति हो जाने का डर जो ठहरा। ट्विटरबाज नेता वनलाइनर मारता है, मैं राजनीति नहीं करना चाहता। पब्लिक ताली पीटने लगती है। कितना सच्चा नेता है, यह राजनीति नहीं करता। पब्लिक मगन होकर रील बनाने लगती है। नेता उसकी रेल बनाने में जुट जाता है।
श्रीमान क सुबह बच्चे को स्कूल बस में बैठाने के बाद ऑफिस जाते हैं। शाम को तरकारी-भाजी लेकर घर लौटते हैं। छुट्टी के दिन सुबह-सुबह फेफड़े साफ करने के लिए पार्क आते हैं। कहने लगे, हवा भौत खराब है, यह तो पार्क है सामने, वरना क्या होता हमारा। हम सबको पेड़ लगाने चाहिए। मैंने हामी भरी। सफर में चंद मिनटों का समय घटाने के लिए बसे-बसाए बाग-बागीचे, जंगल काटने चाहिए या नहीं, यह सवाल मैंने नहीं पूछा। राजनीति हो जाने का डर था। उनने आते ही बता दिया था, राजनीति भौत बुरी चीज है। एयर प्यूरिफायर लगवा लीजिए भाई साहब। ले-देकर यही सलाह समझ में आई, मैंने दे दी। सीधे-सरल आदमी से सीधी बात ही करनी चाहिए।
बात जरा सी टेढ़ी हो जाए, कोई सवाल कर दे, हल्ला मच जाता है कि देखो-देखो राजनीति होने लगी। टीवी-अखबार वाले तो गजब ही चौकस हैं। कोई कहे न कहे, ये अपनी ओर से गदर काट देते हैं। कहीं पीने के पानी का संकट हो, स्कूलों ने मनमानी फीस लगा दी हो, अस्पताल में सुविधाएं न मिल पा रही हों, अगर किसी ने सवाल उठाया, इनकी हेडलाइन तैयार रहती है। मसलन, रेप पीड़िता बच्ची की मौत पर राजनीति तेज।
टीवी देखने वाला, अखबार पढ़ने वाला आम आदमी कन्फ्यूज हो जाता है। वह सीधा-सरल जो ठहरा। उसकी संवेदना बच्ची के साथ है। पर उसे लगता है कि राजनीति बुरी चीज है। चाय का दूसरा घूंट लेते-लेते उसे फिर लगने लगता है कि बच्ची के साथ बुरा हुआ। मन में सवाल उठने लगते हैं, क्यों बुरा हुआ? बच्ची के साथ तो कम कपड़े वाली थोथी दलील भी नहीं है। एक से दूसरे अस्पताल क्यों भटकना पड़ा? पर ये सवाल प्याले में ही डूब जाते हैं। सीधा आदमी मेहनत की कमाई वाली चाय की आखिरी बूंद खींचता है और सिर झटककर कहता है, राजनीति भौत बुरी चीज है।
ऐसे सरकस के हाथी को कौन समझाए कि जन्म से मरण तक हर चीज राजनीति से तय होती है। जिन देशों में एक बच्चे की पॉलिसी थी, वहां दूसरे का न आना राजनीति ही तय कर रही थी। स्कूल कितनी फीस लेगा, रोजगार मिलेगा या नहीं, अस्पताल में क्या सुविधाएं मिलेंगी, रेल-हवाई जहाज में डायनेमिक फेयर से जेब को हार्ट अटैक आएगा या नहीं, यह सब राजनीति ही तय करती है।
कुछ नेता भी कम चतुर सुजान नहीं हैं। माइक हाथ में आते ही ऐलान कर देते हैं कि यह राजनीति करने का मंच नहीं है। कुछ कहूंगा तो राजनीतिक विशेषज्ञ अपना काम शुरू कर देंगे। कोई नहीं पूछता कि भइये, फिर क्या करने आया है तू? राजनीति नहीं करनी तो क्या करना है? हेराफेरी? पर कौन पूछे? सवाल से राजनीति हो जाने का डर जो ठहरा। ट्विटरबाज नेता वनलाइनर मारता है, मैं राजनीति नहीं करना चाहता। पब्लिक ताली पीटने लगती है। कितना सच्चा नेता है, यह राजनीति नहीं करता। पब्लिक मगन होकर रील बनाने लगती है। नेता उसकी रेल बनाने में जुट जाता है।
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