क्या आपने कभी सोचा है कि पृथ्वी से हजारों किलोमीटर दूर अंतरिक्ष में घूम रहे सैटेलाइट को हम कैसे कंट्रोल कर पाते हैं? चाहे वह मौसम का सैटेलाइट हो, संचार उपग्रह हो या नेविगेशन सिस्टम – सभी पर धरती से पूरी नजर और नियंत्रण बना रहता है। लेकिन आखिर इतना दूर बैठे सैटेलाइट तक इंसानी सिग्नल कैसे पहुंचता है और वह कैसे प्रतिक्रिया देता है? आइए, समझते हैं इस तकनीकी चमत्कार के पीछे का विज्ञान।
ग्राउंड स्टेशन से शुरू होती है सिग्नल यात्रा
धरती पर विशेष रूप से बनाए गए ग्राउंड स्टेशन वह मुख्य केंद्र होते हैं जहां से सैटेलाइट को निर्देश भेजे जाते हैं। ये स्टेशन विशाल ऐंटेना और ट्रांसमिशन सिस्टम से लैस होते हैं। जब किसी सैटेलाइट को कोई कमांड देनी होती है—जैसे उसकी दिशा बदलना, कैमरा एक्टिव करना या डेटा भेजना—तो यह आदेश ग्राउंड स्टेशन से रेडियो वेव्स के जरिए अंतरिक्ष में भेजा जाता है।
रेडियो तरंगों से जुड़ी है तकनीक
सैटेलाइट तक सिग्नल पहुंचाने के लिए रेडियो फ्रीक्वेंसी बैंड का इस्तेमाल होता है, जैसे X-band, S-band, या Ka-band। इन रेडियो तरंगों की गति प्रकाश की गति के बराबर होती है (लगभग 3 लाख किलोमीटर प्रति सेकंड)। इसका मतलब है कि पृथ्वी से 36,000 किलोमीटर दूर स्थित जियोस्टेशनरी सैटेलाइट तक सिग्नल को पहुंचने में सिर्फ कुछ मिलीसेकंड्स लगते हैं।
कैसे रिसीव करता है सैटेलाइट सिग्नल?
हर सैटेलाइट में एक ट्रांसपोंडर (Transponder) नामक प्रणाली लगी होती है। यह प्रणाली पृथ्वी से आए सिग्नल को पकड़ती है, उसे डिकोड करती है और उसके अनुसार एक्शन लेती है। उदाहरण के लिए, यदि सैटेलाइट को कैमरे चालू करने का निर्देश दिया गया है, तो ट्रांसपोंडर उस सिग्नल को प्रोसेस करके कैमरा ऑन कर देता है।
टू-वे कम्युनिकेशन सिस्टम
सैटेलाइट केवल सिग्नल रिसीव ही नहीं करता, बल्कि वह धरती पर डेटा भी भेजता है—जैसे मौसम की तस्वीरें, GPS लोकेशन, या टेलीविज़न सिग्नल। इसे डाउनलिंक कहा जाता है। जबकि जब हम सैटेलाइट को सिग्नल भेजते हैं, उसे अपलिंक कहा जाता है। यह दोतरफा संचार प्रणाली ही सैटेलाइट संचालन की रीढ़ है।
भारत की सैटेलाइट कंट्रोल प्रणाली
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) के पास हासन (कर्नाटक), भुवनेश्वर, शार (श्रीहरिकोटा) जैसे शहरों में एडवांस ग्राउंड स्टेशन हैं। इन्हीं के ज़रिए हमारे INSAT, GSAT, NAVIC जैसे उपग्रहों को कंट्रोल किया जाता है। सिग्नल की ताकत, स्पष्टता और देरी की गणना अत्यंत सूक्ष्मता से की जाती है ताकि कोई तकनीकी बाधा न आए।
सिग्नल में देरी और सुरक्षा का ध्यान
हालांकि सैटेलाइट और ग्राउंड स्टेशन के बीच सिग्नल का आदान-प्रदान बेहद तेज़ होता है, लेकिन जब उपग्रह बहुत अधिक दूर होते हैं (जैसे मंगल या चंद्र मिशन), तो सिग्नल को पहुंचने में कई मिनट तक लग सकते हैं। ऐसे में ऑटोमैटिक सिस्टम और प्रोग्राम्ड कमांड्स पर भरोसा किया जाता है। साथ ही, संचार को हैकिंग या रुकावट से बचाने के लिए एन्क्रिप्शन और साइबर सिक्योरिटी तकनीकों का भी सहारा लिया जाता है।
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