दशहरा के शाम को सत्ता का पालतू हरेक मीडिया चैनल बुराई पर अच्छाई की जीत और अभिमान का अंत जैसे शब्दजाल से दशहरा को परिभाषित कर रहा था, सत्ता में बैठे नेता भी यही कर रहे थे। पर, वर्ष 2014 के बाद के समाज को आप देखें तो सत्ता, संवैधानिक संस्थाएं और मीडिया रावण से भी अधिक अभिमानी और बुरे प्रतीत होते हैं। यह अलग बात है कि आज के सत्ताधारी सत्ता में बार-बार आ रहे हैं, पर कैसे आ रहे हैं यह भी सभी जान चुके हैं।
आज सत्ता का अभिमान तो हरेक दिन नजर आता है- क्रिकेट का एक मैच और इसकी जीत को भी देश का मुखिया बड़े शर्मनाक तरीके से सेना के पराक्रम से जोड़ कर चिर-परिचित कुटिल मुस्कान बिखेरता है और मीडिया इसे मुख्य समाचार बनाकर सत्ता के सामने कुत्ते की तरह दुम हिलाने का उदाहरण प्रस्तुत करता है।
इस कट्टर दक्षिणपंथी सत्ता और मीडिया के आका पूंजीपति धन्ना सेठ हैं, जिन्हें सरकार सबकुछ दान कर देने पर आमदा है। पूंजीवाद का एक सीधा सा उसूल है- जनता की समस्याएं नजरअंदाज कर एक नई समस्या पैदा करना और फिर उसके समाधान के नाम पर जनता से सबकुछ लूट लेना। इस “सबकुछ” में केवल संसाधन और श्रम ही शामिल नहीं हैं बल्कि सबसे पहले मौलिक अधिकारों की लूट होती है।
देश में जो सत्तानशीं हैं, उनका एक प्लेबुक है, हरेक घटना का एक ढर्रा है। जब भी कोई सत्ता से प्रश्न करता है, सत्ता शांत आंदोलनों में भी हिंसा पैदा करती है। कम से कम इस सत्ता के लिए कुछ नर-बलियां कोई मायने नहीं रखती हैं। हिंसा होते ही मीडिया और सत्ता पर काबिज हिंसा के पुजारी किसी एक को बली का बकरा बनाने में व्यस्त हो जाते हैं। कुछ ही मिनटों के अंदर उसके पाकिस्तान से संबंध उजागर हो जाते हैं, पाकिस्तानी उसके मेहमान हो जाते हैं, तमाम अवैध विदेशी फंड सामने आते हैं, पुलिस के बड़े अधिकारी शर्मनाक तरीके से प्रेस को ब्रीफ करते हुए आरोपों की झड़ी लगा देते हैं।
आश्चर्य यह है कि किसी घटना से चंद मिनट पहले भी इनमें से कोई जानकारी सत्ता या पुलिस किसी के पास नहीं रहती है, पर चंद मिनटों में ही मीडिया और सत्ता फर्जी वीडियो और समाचार गढ़कर किसी भी प्रतिष्ठित व्यक्ति को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा करार देती है। अनेक मामलों में तो हमारी तथाकथित न्याय व्यवस्था भी इसमें पूरी भागीदारी निभाती है।
सोनम वांगचुक का ऐसा कोई पहला मामला नहीं है, 2014 के बाद से लगातार यही हो रहा है। अनेक मानवाधिकार कार्यकर्ता जेलों में वर्षों से बंद हैं और उनपर मुकदमे की शुरुआत भी नहीं की गई है। तमाम न्यायालय मानवाधिकार पर प्रवचन तो देते हैं पर जब उसका सीधा हनन सत्ता करती है तब खामोश रह जाते हैं। हमारे प्रधान न्यायाधीश बुल्डोजर एक्शन, जिसे सत्ता और मीडिया बड़े गर्व से बुल्डोजर न्याय कहती है, को रोकने से संबंधित निर्णय पर अपनी पीठ थपथपाते हैं,पर इस निर्णय की लगातार अवहेलना किए जाने पर खामोश रहते हैं।
शायद ही कोई ऐसा दिन बीतता होगा, जिस दिन बुल्डोजर की कार्यवाही पर खबरें नहीं रहती हों। पुलिस जैसे ही सत्ता के इशारे पर आरोपी बताते हुए किसी को हिरासत में लेती है, उसके चंद घंटों के भीतर ही उसका घर-बार सब अवैध हो जाता है और उसे बुलडोजर से ढहा दिया जाता है। दरअसल ऐसे मामलों में तो प्रशासन पर ही कार्यवाही होनी चाहिए।
जब इस दौर का कभी इतिहास लिखा जाएगा तो इस पालतू मीडिया के हाथ सबसे अधिक खून से रंगे होंगे। इस मीडिया ने समाचारों को एक तमाशे में बदल दिया है और झूठ का एक संसार रच दिया है। इसके ऐंकरों और तमाम चैनलों पर बैठे सत्ता के प्रवक्ताओं की अकड़ और घमंड के आगे तो रावण भी बौना नजर आता है। टीवी चैनलों पर बैठी महिला ऐंकरों में भी शुपर्णखा बनने की होड़ नजर आती है।
सत्ता और मीडिया की नजर में पूंजीपतियों की लूट का विरोध करने वाला हरेक व्यक्ति नक्सली है, आतंकवादी है, देशद्रोही है। कट्टर दक्षिणपंथी सत्ता की नजर में पूंजीवाद ही देश है और इसका विरोध देशद्रोह। सत्ता का हरेक विरोधी अर्बन नक्सल, टुकड़े-टुकड़े गैंग, घुसपैठिया, देशद्रोही, आतंकवादी या ऐसा ही कुछ हो जाता है। हालत तो यहां तक पहुंच चुकी है कि राहुल गांधी समेत तमाम विपक्षी नेता वक्तव्य बाद में देते हैं और इस पर सत्ता की फौज का अनर्गल प्रलाप इससे पहले ही शुरू हो जाता है। राहुल गांधी के दक्षिण अमेरिका का दौरा शुरू होने से पहले ही बीजेपी के अल्पबुद्धि नेताओं की फौज विरोध शुरू कर चुकी थी।
हमारा देश आज जिस मोड़ पर है, वह निश्चित तौर पर गुलामी की याद ताजा कर देता है। अंग्रेजों के समय भी उनकी नीतियों का विरोध उनके राजशाही का विरोध करार दिया जाता था और सजा दी जाती थी। आज भी सरकारी नीतियों का विरोध देशद्रोह करार दिया जाता है और देश प्रधानमंत्री को माना जाता है। जब प्रधानमंत्री स्वदेशी का नारा बुलंद करते हैं, औद्योगिक उत्पादन कम होने लगता है- प्रधानमंत्री बचत उत्सव की बात करते हैं तब खाद्य मूल्य सूचकांक छलांग मारने लगता है।
प्रधानमंत्री जी पर्यावरण के क्षेत्र में “लाइफ” की बात करते हैं तब देश के नागरिकों का जीवन ही खतरे में पड़ जाता है। प्रधानमंत्री जी राम राज्य की बात करते हैं और शासन रावण जैसा हो जाता है। विकास की जब बात करते हैं, पहाड़ दरकने लगते हैं और शहर नदियों में समाने लगते हैं। प्रधानमंत्री जी तो चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के साथ ही 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज पर जिंदा रखने पर भी गर्व करते हैं।
आतंकवाद भी अब प्रमुख तौर पर दो बड़े वर्गों में बंट गया है- ऑनलाइन आतंकवाद और शारीरिक आतंकवाद। आश्चर्य यह है कि परंपरागत आतंकवाद अब कम होता जा रहा है, पर सत्ता-समर्थित आतंकवाद का दायरा लगातार फैलता जा रहा है। इसके लिए सत्ता तमाम अपराधियों को नियुक्त करती है और ऑनलाइन आतंक के लिए तो एक अदद आईटी सेल ही है। सत्ता को अपने करीबियों का आतंक नजर नहीं आता और यह परंपरा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कायम है।
उदाहरण के तौर पर अमेरिका और भारत को इजरायल का आतंकवाद नजर नहीं आता। पश्चिमी देशों को यह आतंकवाद नजर आता है पर दूसरी तरफ फिलिस्तीन के समर्थन में उठी आवाजों को दबाया जाता है। पारंपरिक आतंकवाद भी सत्ता की नीतियों के कारण ही पनपता है। इसके पनपने का सबसे बड़ा कारण समाज में व्यापक तौर पर आर्थिक तंगी, युवाओं में व्यापक बेरोजगारी और प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार में कमी या अधिकार पूरी तरह से छिन जाना है।
यह निष्कर्ष जर्मनी के लेपजीग यूनिवर्सिटी के सामाजशास्त्रियों के नेतृत्व में किए गए एक अंतरराष्ट्रीय अध्ययन का है। अब तक समाजशास्त्रियों का एक बड़ा वर्ग दुनिया में बढ़ते आतंकवाद का कारण धार्मिक उन्माद और राजनीति में कट्टरपंथियों के बढ़ते वर्चस्व को मानता था। हमारे देश में तो धार्मिक उन्माद, कट्टरपंथी सत्ता के साथ ही हरेक तरह की सामाजिक विषमता भी विकराल होती जा रही है। यहां केवल सत्ता में बैठे रावण की ही पूजा मान्य है, शेष सभी देशद्रोही हैं।
रावण के समय भी तमाम जगहों पर दैत्यों का शासन था और ऐसी हरेक शक्ति का रावण समर्थक था। आज की दुनिया में भी यूक्रेन को तबाह करने वाले रूसी राष्ट्रपति पुतिन, गाजा को हड़पने की मंशा लिए नेतन्याहू, दुनिया के गरीब देशों को कर्ज के जाल में फंसाते चीन के राष्ट्रपति, अपनी ही जनता को कुचलती म्यांमार की सेना, मानवाधिकार को कुचलते मध्य-पूर्व के देशों के शासक, महिलाओं को कुचलते तालिबानी, मानवाधिकार और अभिव्यक्ति की आजादी को कुचलती इटली की प्रधानमंत्री- सभी हमारे प्रधानमंत्री के गहरे मित्र हैं।
हमारे देश में पूंजीवाद, सत्ता और मीडिया सभी रावण हो चुके हैं और इसी को रामराज्य के नाम से प्रचारित कर रहे हैं। जनता अभी सो रही है, सत्ता चालीसा का जाप कर रही है, अपने आका को सर्व-शक्तिमान समझ रही है- पर कभी तो जनता भी नींद से उठेगी और अपने जलते हुए देश को देखेगी, लुटे हुए अशोक वाटिका सरीखे प्राकृतिक संसाधनों को देखेगी।
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