भारत में दवाओं की सस्ती और सुलभता सुनिश्चित करने के लिए जो प्रणाली विकसित की गई थी, वह अब सवालों के घेरे में आ गई है। नेशनल फार्मास्युटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी (NPPA) के निर्देश पर किए गए एक अध्ययन में यह सामने आया है कि देश की दवा मूल्य निर्धारण प्रणाली में पारदर्शिता और स्थिरता की कमी है। इस अध्ययन को दिल्ली के ब्रिज पॉलिसी थिंक टैंक, बैंगलोर बायो-इनोवेशन सेंटर और गुजरात नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी (GNLU) ने किया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि सामान्य दवाएं भले ही सस्ती हों, लेकिन गंभीर और दुर्लभ बीमारियों के उपचार में यह नीति प्रभावी नहीं है।
अध्ययन के अनुसार, भारत ने 2013 में ड्रग प्राइस कंट्रोल ऑर्डर (DPCO) के तहत लागत आधारित प्रणाली को छोड़कर बाजार आधारित प्रणाली लागू की थी, ताकि दवाओं की कीमतें उत्पादन लागत के अनुसार निर्धारित की जा सकें। हालांकि, इस बदलाव से पारदर्शिता में सुधार नहीं हुआ। निर्माताओं को यह समझने में कठिनाई होती है कि सरकार छत मूल्य (Ceiling Price) कैसे निर्धारित करती है। रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है, “बाजार आधारित मूल्य निर्धारण में डेटा की पारदर्शिता की कमी और असंगति बनी हुई है, जिससे नई कंपनियों के लिए बाजार में प्रवेश करना कठिन हो जाता है।”
दुर्लभ बीमारियों के उपचार में चुनौतियाँ
ब्रिज पॉलिसी की निदेशक कृतिका कृष्णमूर्ति ने कहा कि भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती दुर्लभ और गंभीर बीमारियों का उपचार है। इन बीमारियों के लिए दवाएं न केवल महंगी हैं, बल्कि देश में सीमित मात्रा में उपलब्ध हैं। रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि सरकार को इस क्षेत्र में संरचित वार्ताएं, लक्षित सब्सिडी और अनुसंधान के लिए प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है, ताकि सेल और जीन थेरेपी जैसी आधुनिक चिकित्सा भारत में स्थानीय स्तर पर विकसित और सस्ती हो सके।
बीमा योजनाओं की सीमाएँ
रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि भारत में 48.8% स्वास्थ्य खर्च अभी भी सीधे घरों से होता है, यानी “पॉकेट से भुगतान” प्रणाली का प्रचलन है। आयुष्मान भारत, सीजीएचएस और राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (NHM) जैसी योजनाएं अस्पतालों में उपचार का खर्च उठाती हैं, लेकिन दवाओं की कीमतों पर इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। आयुष्मान भारत योजना केवल अस्पताल में भर्ती मरीजों को कवर करती है, न कि बाहर से खरीदी जाने वाली दवाओं को। इस कारण मरीजों को दवाओं के लिए अपनी जेब से खर्च करना पड़ता है। रिपोर्ट के अनुसार, जब तक दवा कवरेज को बीमा नीति में शामिल नहीं किया जाता, तब तक दवा बाजार में पारदर्शिता और निष्पक्ष मूल्य निर्धारण संभव नहीं है.
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