अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच दक्षिण कोरिया में चल रही बातचीत ख़त्म हो चुकी है.
ट्रंप वॉशिंगटन रवाना हो गए हैं. बातचीत कैसी रही इस पर न तो अमेरिका और न ही चीन की ओर से कोई बयान जारी किया गया है.
दोनों राष्ट्रपतियों के बीच ट्रेड डील पर बातचीत की चर्चा थी.
ऐसा लग रहा था कि दोनों देश व्यापार समझौते के लिए पहले से ज़्यादा करीब पहुंच चुके हैं.
दोनों पक्षों के अधिकारियों ने इस हफ्ते की शुरुआत में कहा कि उन्होंने अपने-अपने मुद्दों को सुलझाने के लिए एक सहमति बना ली है.
दोनों देशों के बीच हाल के दिनों में टैरिफ़ को लेकर ख़ासा तनाव देखा गया.
हालांकि अब इस मुलाक़ात से समझौते की उम्मीदें बन रही हैं. लेकिन ट्रंप-जिनपिंग मुलाक़ात के नतीज़ों के बारे में अभी कुछ नहीं कहा गया है.
अमेरिकी वित्त मंत्री स्कॉट बेसेंट ने तो यहां तक कह दिया कि उन्हें नहीं लगता कि ट्रंप ने चीनी सामानों पर 100 फ़ीसदी लेवी लगाने की जो चेतावनी दी है वो अब लागू किया जाएगा.
लेकिन यह तो चिंता का सिर्फ़ एक मामला है. दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं लगभग हर क्षेत्र में एक-दूसरे से मुकाबला कर रही हैं.
चाहे वह बदले की भावना से लगाए गए टैरिफ़ हों या फिर महत्वपूर्ण खनिजों और सेमीकंडक्टरों तक पहुंच. सेमीकंडक्टर मॉर्डन मैन्युफैक्चरिंग की रीढ़ माने जाते हैं.
यहां तक कि बेहद लोकप्रिय चीन ऐप टिकटॉक भी राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं के कारण लंबे समय से दोनों देशों के बीच तनाव का कारण बना हुआ है.
विश्लेषकों का मानना था कि दोनों नेता इस बातचीत में टिकटॉक के अमेरिकी ऑपरेशन की बिक्री पर सौदे को अंतिम रूप दे सकते हैं.
सिडनी की टेक्नोलॉजी यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर टिम हारकोर्ट का कहना है, ''यह वह बैठक है जो कोविड के बाद के दौर में वैश्वीकरण की नई दिशा तय करेगी."
इस बैठक तक पहुंचने में दस महीने लग गए, जिसमें एक-दूसरे पर लगाए गए टैरिफ़, अस्थिर युद्धविराम और दुनिया भर के उद्योगों और कारोबारों के लिए अनिश्चितता शामिल रही.
तो अब सवाल यह है हालात यहां तक कैसे पहुंचे.
बदले की कार्रवाई में एक दूसरे पर टैरिफ़ और फिर समझौता
Getty Images चीन ने अमेरिका से सोयाबीन मंगवाना बंद कर दिया. इससे अमेरिका पर दबाव बढ़ गया है. ट्रंप ने 'लिबरेशन डे' से काफ़ी पहले ही चीन के साथ व्यापार युद्ध शुरू कर दिया था.
ये वो तारीख थी जब अमेरिका ने लगभग सभी देशों पर टैरिफ़ लगा दिए थे.
इनमें उसके दोस्त और विरोधी दोनों तरह के देश शामिल थे.
चीन लंबे समय से उनके निशाने पर था. ट्रंप का आरोप था कि चीन अनुचित व्यापारिक नीतियां अपनाता है. अपने पहले कार्यकाल में भी ट्रंप ने चीन पर टैरिफ़ लगाए थे.
अपने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत में यानी फरवरी में ट्रंप ने सभी चीनी आयातों पर दस फ़ीसदी एक्स्ट्रा टैरिफ़ लगाने का एलान किया था.
इसके जवाब में चीन ने टैरिफ़ बढ़ा दिया था. ट्रंप ने फिर पलटवार किया और चीन पर अमेरिकी टैरिफ़ बढ़ाकर 20 फ़ीसदी कर दिया.
फिर लिबरेशन डे पर चीन को 34 फ़ीसदी अतिरिक्त टैरिफ़ लगाने की धमकी दी.
फिर एक दूसरे के ख़िलाफ़ टैरिफ़ लगाने का सिलसिला चलता रहा. और आख़िरकार अमेरिकी टैरिफ़ 145 फ़ीसदी और चीनी टैरिफ़ 125 फ़ीसदी तक पहुंच गया.
इन भारी टैरिफ़ ने मैन्युफैक्चरर्स और आयातकों को हिला कर रख दिया.
चीन के गोदामों में माल का ढेर लग गया. जबकि अमेरिकी कंपनियां घबराई हुईं यह सोचने लगीं कि रातों-रात वे अपनी सप्लाई चेन के लिए नया विकल्प कैसे ढूंढे.
इस बीच, ट्रंप की टैरिफ़ मुहिम ने उन "ट्रांसशिपमेंट्स" पर भी निशाना साधा, जिनसे चीनी सामान पहुंचने की संभावना थी. यानी चीन में बने सामान, जिन्हें वियतनाम जैसे अन्य देशों के रास्ते अमेरिका भेजा जा रहा था, ताकि वे अमेरिकी टैरिफ़ से बच सकें.
लेकिन चीन पीछे नहीं हटा. चीन ने बार-बार कहा कि वह बातचीत के लिए तैयार है लेकिन यह भी साफ़ कर दिया कि वह दिक्कतें झेलने के लिए तैयार है.
उसने भी पलटवार किया. जैसे, उसने ट्रंप के वोट बैंक अमेरिकी किसानों को निशाना बनाया. उसने सोयाबीन जैसी एग्रीकल्चर प्रोडक्ट पर भारी टैरिफ़ लगा दिया.
ट्रंप ने अमेरिकी कंपनियों जैसे एपल और वॉलमार्ट को चीन के मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर से अलग करने की कोशिश की लेकिन कई छूट देने से ये पॉलिसी कमजोर पड़ गई.
इससे चीन का आत्मविश्वास और बढ़ गया.
जून में महीनों तक चली बातचीत के बाद दोनों देशों ने एक नाज़ुक समझौते पर सहमति जताई. यह तय हुआ कि जब तक कोई ठोस समझौता नहीं हो हो जाता तब तक वो बातचीत जारी रखेंगे.
चिप्स की जंगटैरिफ़ पर भले ही दोनों देशों की बातचीत जारी थी. लेकिन अमेरिका-चीन संबंधों में एक और पुराना विवाद फिर से उभर आया था. वो है एडवांस चिप्स पर नियंत्रण की लड़ाई. ये चिप्स स्मार्टफ़ोन से लेकर आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस तक हर तकनीक के लिए ज़रूरी हैं.
ये चीन की उस आर्थिक योजना का अहम हिस्सा हैं, जिसके तहत वह "दुनिया की फैक्ट्री" से आगे जाकर एडवांस टेक्नोलॉजी हब बनाना चाहता है.
लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि भले ही चीन के पास प्रतिभा की कमी नहीं है फिर भी उसका सेमीकंडक्टर उद्योग अमेरिका से काफी पीछे है.
इसीलिए अमेरिका ने ऐसे कदम उठाने शुरू किए जिससे सबसे एडवांस चिप्स तक पहुंचने की चीन की कोशिश सीमित हो जाए.
यह नीति ट्रंप से पहले भी मौजूद थी, लेकिन उनके शासन में इसे और कड़ा कर दिया गया ताकि केवल साधारण (कम एडवांस) सेमीकंडक्टर ही चीन पहुंच सके.
इस रणनीति के केंद्र में रही कंपनी एनविडिया. ये अब दुनिया की सबसे अमीर टेक कंपनी बन चुकी है. एनविडिया के बनाए चिप्स को इंडस्ट्री में "गोल्ड स्टैंडर्ड" माना जाता है.
चीन एनविडिया के लिए एक बड़ा बाज़ार है, जिससे उसे अरबों डॉलर की कमाई होती है.
इसी कारण एनविडिया ने अमेरिकी सरकार को अपनी चीन बिक्री का 15 फ़ीसदी देने पर सहमति जताई, ताकि उसे निर्यात लाइसेंस मिल सके.
लेकिन फिर बीजिंग ने पलटवार किया. उसने कथित तौर पर स्थानीय कंपनियों को अमेरिकी चिप्स खरीदने से रोक दिया.
इसके बजाय उसने घरेलू कंपनियों जैसे अलीबाबा ( और हुआवे का समर्थन करने के लिए कहा.
इसके साथ ही चीन ने एनविडिया के खिलाफ एंटी-मोनोपॉली जांच भी शुरू कर दी.
एस. राजरत्नम स्कूल ऑफ़ इंटरनेशनल स्टडीज़ की चीन नीति विशेषज्ञ स्टेफ़नी कैम का कहना है कि इन कदमों से यह बात और साफ़ हो जाती है कि चीन का असली मकसद अधिक आत्मनिर्भर बनना है.
उनके मुताबिक., चीन लगातार टेक्नोलॉजी और एआई में भारी निवेश कर रहा है. और कंपनियों को इनोवेशन बढ़ाने और जोखिम उठाने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है.
विश्लेषकों का मानना है कि चीन "लॉन्ग गेम" खेल रहा है. यानी वह जल्दबाज़ी में कोई ऐसा समझौता नहीं करना चाहता भले ही समजौते टिके या न टिके.
इसके बजाय, वह ऐसे घरेलू उद्योगों में निवेश कर रहा है जो पश्चिमी देशों पर कम निर्भर हों.
रेयर अर्थ की लड़ाई
Getty Images ट्रंप और जापान की प्रधानमंत्री सनाई तकाइची रेयर अर्थ समझौते के बाद चीन के इस "लॉन्ग गेम" का फ़ैसले का मतलब ये नहीं है कि वह अमेरिका के साथ समझौता नहीं चाहता.
प्रोफे़सर टिम हारकोर्ट का कहना है कि चीन की ताक़त की एक सीमा है. वो बताते हैं कि चीन की घरेलू अर्थव्यवस्था कई चुनौतियों से जूझ रही है.जैसे बेरोज़गारी, कमज़ोर उपभोग और रियल एस्टेट संकट.
चीन की नेतृत्व प्रणाली पर लोकतांत्रिक चुनावों का दबाव तो नहीं होता. लेकिन फिर भी उसे मध्यवर्ग की समृद्धि बनाए रखने और राजनीतिक स्थिरता सुनिश्चित करने का दबाव झेलना पड़ता है.
हारकोर्ट कहते हैं, "अमेरिका चीन की घरेलू मुश्किलों से पूरी तरह वाक़िफ़ है. चीन पर दबाव है और वह किसी लंबे और गंभीर व्यापार युद्ध को नहीं चाहेगा."
शी जिनपिंग चाहते हैं कि वो बातचीत में एक मज़बूत स्थिति से प्रवेश कर सकें.
इसी कारण अक्टूबर में चीन ने जवाबी कदम उठाया था. उसने रेयर अर्थ के निर्यात पर सख़्त प्रतिबंध लगा दिए.
चीन के पास इन महत्वपूर्ण खनिजों की प्रोसेसिंग में लगभग एकाधिकार है.
इन्हीं खनिजों का इस्तेमाल इलेक्ट्रॉनिक्स, ग्रीन एनर्जी तकनीक और फाइटर जेट्स में होता है.
यह कदम व्यापार युद्ध में एक निर्णायक मोड़ साबित हुआ.
ऑस्ट्रेलिया के एडिथ कोवान विश्वविद्यालय की नाओइज़ मैकडोनो कहती हैं,"अमेरिका के टेक्नोलॉजी प्रतिबंधों से चीन की प्रगति धीमी पड़ सकती है, लेकिन चीन की ओर से रेयर अर्थ्स पर नियंत्रण लगाने से पूरे-के-पूरे उद्योग ठप हो सकते हैं."
रेयर अर्थ पर चीन की घोषणा और अमेरिका की हैरानीरेयर अर्थ को लेकर चीन की घोषणा ने अमेरिका को चौंका दिया है.
ख़ास तौर पर इसलिए क्योंकि यह कदम उस वक्त उठाया गया जब ट्रंप ने यह कहा था कि दोनों पक्ष टिकटॉक के अमेरिकी कारोबार की बिक्री पर समझौते पर पहुंच गए हैं.
एक शीर्ष अमेरिकी ट्रे़ड अफसर ने इस कदम को अमेरिका-चीन के बीच समझौते की स्थिति के प्रति विश्वासघात बताया.
उसने अमेरिका को एक बार फिर याद दिलाया कि वो चीनी संसाधनों पर कितना निर्भर है.
इसके बाद अमेरिका ने ऑस्ट्रेलिया, मलेशिया और जापान के साथ कई नए समझौते किए ताकि उसे चीन से बाहर के स्रोतों से रेयर अर्थ्स मिल सके.
प्रोफे़सर हारकोर्ट के मुताबिक, ''यह अमेरिका के लिए एक तरह का "इंश्योरेंस पॉलिसी" था ताकि वह चीन पर पूरी तरह निर्भर न रहे.''
ये समझौते उस समय हुए जब ट्रंप और अमेरिकी वार्ताकार चीन के साथ तनाव कम करने की कोशिश में थे और गुरुवार की बैठक तय करने के लिए चीनी अधिकारियों से मुलाकात कर रहे थे.
दोनों देशों के बीच मतभेद बहुत गहरे हैं, लेकिन प्रोफे़सर कैम के मुताबिक़ "कुछ आसान समझौते संभव हैं. जैसे कि चीन अगर अपने दुर्लभ खनिजों पर निर्यात नियंत्रण टाल देता है तो अमेरिका बदले में कुछ टैरिफ़ कम कर सकता है.
बातचीत से एक दिन पहले, रॉयटर्स की एक रिपोर्ट में बताया गया कि चीन ने इस सीजन की पहली सोयाबीन खेप खरीदी, जो ट्रंप और अमेरिकी किसानों के लिए बड़ी जीत मानी जा रही है.
इसके बदले में उम्मीद की जा रही है कि शी जिनपिंग चिप्स की बिक्री पर लगे अमेरिकी प्रतिबंधों में ढील की मांग करेंगे.
अगर टिकटॉक सौदे को भी अंतिम मंजूरी मिल जाती है तो यह ट्रंप के लिए एक और राजनीतिक जीत होगी.
प्रोफ़ेसर कैम का कहना है,"चाहे समझौता कितना भी नाज़ुक क्यों न हो, यह आने वाले महीनों में अप्रत्याशित फैसलों के जोखिम को कम कर सकता है."
प्रोफेसर हारकोर्ट भी इससे सहमत हैं. वो कहते हैं, "मेरा मानना है कि ट्रंप प्रशासन अब भी टैरिफ़ के मामले में काफी अनिश्चित है लेकिन ये वार्ताएं माहौल को थोड़ा शांत कर सकती हैं."
हालांकि वो चेतावनी देते हैं, ''अमेरिका और चीन के बीच कोई भी समझौता हमेशा के लिए नहीं टिकेगा.''
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.
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