अलीगढ़ के जवाहर लाल नेहरू मेडिकल कॉलेज के सामान्य वॉर्ड में लेटे क़दीम क़ुरैशी के शरीर पर ज़ख़्मों के निशान साफ़ नुमायां हैं.
उनके बगल के बेड पर लेटे 20 साल के नौजवान अरबाज़ को वॉशरूम जाने के लिए दो लोगों का सहारा लेना पड़ रहा है. उनके साथी अक़ील (मुन्ना) और अक़ील क़ुरैशी, जिन्हें ज़्यादा चोट आई है, दूसरे वॉर्ड में भर्ती हैं.
इन युवाओं के मुताबिक़, 24 मई की सुबह क़दीम अपने तीन साथियों अक़ील (मुन्ना), अरबाज़ और अक़ील क़ुरैशी के साथ रोज़ की तरह अलीगढ़ की अल अम्मार मीट फ़ैक्ट्री से भैंस का मांस लेकर क़रीब 35 किलोमीटर दूर अतरौली के लिए निकले थे. उनके पास मांस ख़रीद की रसीद भी थी.
इन युवाओं का दावा है कि फ़ैक्ट्री से निकलते ही कुछ बाइक सवारों ने उनकी पिक-अप गाड़ी का पीछा करना शुरू कर दिया था और जब वे फ़ैक्ट्री से क़रीब 15 किलोमीटर दूर पनैठी क़स्बे से अतरौली की तरफ़ बढ़े ही थे कि बाइक सवारों ने उनकी गाड़ी के आगे बाइक लगाकर उन्हें रोक लिया.
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क़दीम के साथ ऐसा पहली बार नहीं हुआ था. वह दावा करते हैं कि दो सप्ताह पहले भी उन्हें इसी तरह कथित हिंदूवादी युवाओं के समूह ने रोका था.
अस्पताल के बिस्तर पर लेटे क़दीम ने कहा, "तब भी उन्होंने गाय का मांस होने का आरोप लगाया था. हमने रसीद दिखाई, बाक़ी काग़ज़ दिखाए लेकिन वो नहीं माने. उन्होंने हमसे 50,000 रुपए मांगे, जो हमने नहीं दिए. कुछ देर बाद पुलिस आई और हमें थाने ले गई. मांस की जांच के बाद हमें छोड़ दिया गया."
क़दीम को लगा था कि इस बार भी ऐसा ही होगा क्योंकि युवाओं का व्यवहार ऐसा ही था.
वह कहते हैं, "हमने उन्हें क़ाग़ज दिखाए और कहा कि ये भैंस का मांस है. उन्होंने फिर पैसे मांगे और हमने देने से मना कर दिया. दो बाइक पर सवार जिन चार युवाओं ने हमें रोका था, उनका व्यवहार शुरू में आक्रामक नहीं था. हमें लगा फिर पुलिस आएगी और हमें छोड़ दिया जाएगा."
लेकिन क़दीम का भरोसा इस बार सही साबित नहीं हुआ.
वह बताते हैं कि, ''रोके जाने के कुछ देर बाद युवाओं का एक और समूह आया और आते ही उत्तेजक नारेबाज़ी करते हुए पिक-अप वाहन में सवार इन चार लोगों के साथ मारपीट शुरू कर दी. इस समूह का नेतृत्व विजय बजरंगी कर रहे थे, जो अब गिरफ़्तार हैं.''
क़दीम कहते हैं, "बाद में आए युवाओं ने बिना कुछ बोले हमला किया. वो गाय काटने का आरोप लगा रहे थे. हमारी किसी ने एक नहीं सुनी."
अभी क़दीम और उनके साथियों पर हमला हो ही रहा था कि पुलिस की एक पीआरवी (डायल 112) गाड़ी वहां से गुज़री.
क़दीम दावा करते हैं कि वो और उनके साथी बचने के लिए गाड़ी के पीछे भागे लेकिन पुलिस की गाड़ी बिना रुके आगे बढ़ गई.
क़दीम कहते हैं, "क़रीब 20 मिनट बाद फिर से पुलिस की गाड़ी आई. हम जान बचाने के लिए उसमें घुस गए. लेकिन भीड़ बहुत ज्यादा बढ़ चुकी थी. सिपाहियों ने हमें बचाने की कोशिश नहीं की, भीड़ ने हमें गाड़ी से निकालकर तब तक मारा जब तक हम बेहोश नहीं हो गए."
बीबीसी ने इस घटना के कुछ वीडियो देखे हैं जिनमें भीड़, पुलिस की गाड़ी से इन चार लोगों को बाहर खींचते हुए और पीटते हुए दिख रही है. यहां मौजूद तीन पुलिसकर्मी, जिनमें एक महिला हैं, उन्हें बचाने का कोई प्रयास नहीं करते.
हालांकि, बीबीसी को एक और वीडियो मिला है जिसमें घायल अधमरी हालत में सड़क पर पड़े हैं और दो पुलिसकर्मी हमलावरों को रोकने की नाकाम कोशिश करते दिख रहे हैं.
मारपीट की इस घटना के कई वीडियो सोशल मीडिया पर शेयर किए गए हैं. इस घटना के बाद अलीगढ़ पुलिस ने दो एफ़आईआर दर्ज की. एक हमलावर भीड़ पर और दूसरी गोक़शी के आरोप में पीटने वाले चार लोगों पर.
बीबीसी से बातचीत में अलीगढ़ के पुलिस अधीक्षक संजीव सुमन कहते हैं, "मांस के सैंपल मथुरा की एफ़एसएल लैब भेजे गए थे और जांच में मांस के भैंस का मांस होने की पुष्टि हुई है. कारोबारी एक वैध स्लॉटर हाऊस से दस्तावेज़ों के साथ वैध तरीक़े से मांस ले जा रहे थे. ऐसे में कथित गोक़शी का मुकदमा जांच के बाद समाप्त हो जाएगा."
हमले के आरोप में पुलिस ने अब तक चार लोगों को गिरफ़्तार किया है. इनमें एक 22 साल के विजय बजरंगी हैं जो हमले के वीडियो में भीड़ का नेतृत्व करते दिख रहे हैं.
उनके अलावा 50 साल के विजय गुप्ता, 25 साल के लवकुश और 25 साल के भानू प्रताप को गिरफ़्तार किया गया है.

विजय बजरंगी, विजय गुप्ता और लवकुश घटनास्थल से क़रीब 10 किलोमीटर दूर कलाई गांव के रहने वाले हैं.
भानू प्रताप अलहादादपुर गांव के हैं जो घटनास्थल से क़रीब आधा किलोमीटर दूर है.
वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक संजीव सुमन कहते हैं, "इन चार लोगों के अलावा उन सभी लोगों को गिरफ़्तार किया जाएगा जो इस हमले में शामिल थे."
हरदुआगंज पुलिस स्टेशन घटनास्थल से क़रीब 16 किलोमीटर दूर और क़रीब 30 मिनट की दूरी पर है. हरदुआगंज के एसएचओ धीरज कुमार के नेतृत्व में पुलिस टीम के मौक़े पर पहुंचने के बाद ही घायलों को निकाला जा सका और अस्पताल पहुंचाया जा सका.
क़दीम कहते हैं, "शुरू में 15-20 लोग थे. धीरे-धीरे सैकड़ों लोगों की भीड़ जुट गई. कोई भी हमें बचाने आगे नहीं आया. लोग कह रहे थे- इन्हें मार दो, आग लगा दो. अगर हरदुआगंज की पुलिस टीम 10 मिनट और नहीं आती तो शायद हम ज़िंदा नहीं होते."

बीबीसी ने घटनास्थल के ऐसे वीडियो भी देखे हैं जिनमें पुलिस टीम घायलों को निकालते हुए दिख रही है. एक वीडियो में अलीगढ़ के पुलिस अधीक्षक ग्रामीण अमृत जैन भी आक्रोशित भीड़ के बीच में नज़र आ रहे हैं.
पुलिस की मदद देर से पहुंचने और मौके पर मौजूद पुलिसकर्मियों के भीड़ को रोकने में नाकाम रहने के सवाल पर पुलिस अधीक्षक संजीव सुमन कहते हैं, "पुलिस फ़ोर्स के आने के बाद उनका रेस्क्यू आसान हो पाया है. भीड़ बहुत आ जाने के कारण पीआरवी के जो दो-तीन सिपाही जा पाए थे उन्हें भीड़ को संभालने में दिक़्क़त हुई ये बात सही है."
"लेकिन पुलिस टीम के मौक़े पर पहुंचने के बाद घायलों को तुरंत अस्पताल पहुंचाया गया. तुरंत चिकित्सा सहायता मिलने की वजह से इन घायलों की हालत में सुधार हो रहा है, एक व्यक्ति जिसके सिर में चोट है, उसे छोड़कर सभी की हालत बेहतर है."
इलाक़े में मीट का कारोबार करने वाले लोग आरोप लगाते हैं कि ये पहली बार नहीं है जब ख़ुद को हिंदूवादी बताने वाले युवाओं की भीड़ ने इस तरह से मीट ले जा रहे कारोबारियों को रोका है.
बीबीसी से बात करते हुए मांस बेचने का काम करने वाले कई लोगों ने इलाक़े में अवैध वसूली के आरोप लगाए.
इन आरोपों पर पुलिस अधीक्षक संजीव सुमन ने बीबीसी से कहा, "हम इस घटना की गंभीरता से जांच कर रहे हैं. ये भी देखा जा रहा है कि ये अचानक हुई घटना है या किसी साज़िश का हिस्सा. यदि कुछ ऐसे तत्व हैं जो गाय के नाम पर गुंडागर्दी कर रहे हैं तो पुलिस उन पर सख़्ती से कार्रवाई करेगी."
संजीव सुमन ये भी स्वीकार करते हैं कि हमले का शिकार हुए मांस कारोबारियों को पहले भी गाय का मांस ले जाने के नाम पर रोका गया था और तब भी जांच में मांस भैंस का ही निकला था.
गिरफ़्तार विजय बजरंगी की पहचान क्षेत्र में एक हिंदूवादी युवा की है. उनके साथ गिरफ़्तार बाक़ी लोग भी समूह में काम करते हैं.
हालांकि पुलिस ने इन अभियुक्तों के किसी ख़ास समूह या संगठन से जुड़े होने की पुष्टि नहीं की है.
इसी बीच, अलीगढ़ के हिंदूवादी संगठनों ने ख़ुद को हमलावरों से अलग कर लिया है. विश्व हिंदू परिषद से जुड़े मुकेश राजपूत कहते हैं, "24 मई को हुई घटना में विश्व हिंदू परिषद या बजरंग दल से जुड़ा कोई कार्यकर्ता शामिल नहीं है."
मुकेश राजपूत दावा करते हैं कि इस मार्ग से लगातार मीट का परिवहन होता है और इसके गाय का मांस होने को लेकर फैली अफ़वाह की वजह से ये घटना हुई.
मुकेश राजपूत कहते हैं, "बार-बार उस मार्ग से मीट को ले जाया जा रहा था और नियम क़ानूनों का पालन नहीं हो रहा था. ये अफ़वाह फैली कि संरक्षित पशु (गाय) का मांस ले जाया जा रहा है और इससे आसपास के ग्रामीण क्षेत्र में आक्रोश फैल गया, जिसके परिणाम में ये घटना हुई. विश्व हिंदू परिषद या बजरंग दल ऐसी किसी हिंसा का समर्थन नहीं करते हैं."
हिंदूवादी संगठनों के नाम पर मीट कारोबारियों से अवैध वसूली के सवाल पर राजपूत कहते हैं, "जो लोग इस तरह से हिंदूवादी संगठनों के नाम का इस्तेमाल करके ग़लत काम कर रहे हैं उन पर रोक लगनी चाहिए. यदि हमारा नाम लेकर कोई ऐसे काम करे, तो हम उन पर क़ानूनी कार्रवाई भी करेंगे."
ये पहली बार नहीं है जब गाय के नाम पर इस तरह की हिंसा हुई है. उत्तर भारत, ख़ासकर उत्तर प्रदेश में समय-समय पर लिंचिंग या मारपीट की ऐसी घटनाएं सामने आती रहती हैं.
मानवाधिकार समूहों की रिपोर्टों के मुताबिक़ भारत में साल 2014 में भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने के बाद से इस तरह की घटनाओं में इज़ाफ़ा हुआ है.

पिछले एक साल के दौरान, उत्तर प्रदेश में ही अलग-अलग ज़िलों में ऐसी आधा दर्जन से अधिक घटनाएं सामने आईं जब ख़ुद को हिंदूवादी बताने वाले युवाओं ने गोहत्या या गाय का मांस रखने के आरोप में मारपीट की. ऐसी अधिकतर घटनाओं में पुलिस ने उन लोगों पर ही कार्रवाई की जिन पर गाय का मांस ले जाने के आरोप लगाए गए थे.
लेकिन अलीगढ़ की घटना में पुलिस ने स्पष्ट किया है कि कारोबारी वैध तरीक़े से मांस लेकर जा रहे थे और उन पर हमला करने वालों पर क़ानून के लिहाज़ से सख़्त कार्रवाई की जाएगी.
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष और इंटरनेशनल डेमोक्रेटिक राइट्स फ़ाउंडेशन के निदेशक फ़ैज़ुल हसन कहते हैं कि मुसलमानों को लगातार इसलिए निशाना बनाया जा रहा है क्योंकि हमलावरों पर प्रशासन सख़्त नहीं रहा है.
फ़ैज़ुल हसन कहते हैं, "2014 के बाद से मुसलमानों को निशाना बनाने का ट्रेंड शुरू हुआ है. गाय के नाम पर, पहचान के आधार पर, दाढ़ी-टोपी के नाम पर मुसलमानों पर हमले हो रहे हैं. ये छोटे-छोटे समूह, सेनाएं कहीं भी किसी को भी रोक रही हैं और हमला कर रही हैं."
"इन समूहों या ऐसी कथित सेनाओं को तोड़ने या रोकने की ज़िम्मेदारी मुसलमानों की नहीं है बल्कि सरकार और प्रसासन की है. प्रशासन को इन पर कार्रवाई करनी थी. यदि ऐसे समूहों पर कार्रवाई की गई होती तो इनके हौसले इतने बुलंद ना होते कि राह चलते कारोबारियों को रोककर ये हमला कर देते."
कई विपक्षी दलों के सांसदों ने अलीगढ़ में हुई मारपीट की इस घटना के घायलों से मुलाक़ात की है. समाजवादी पार्टी के सांसद रामजीलाल सुमन भी पार्टी के प्रतिनिधिमंडल के साथ अलीगढ़ पहुंचे.
रामजीलाल सुमन आरोप लगाते हैं कि ऐसे तत्वों को सत्ता से मिल रहा संरक्षण ही इस तरह की लिंचिंग की घटनाओं की मुख्य वजह है.
रामजीलाल सुमन कहते हैं, "केंद्र और राज्य की सरकार लोगों को सांप्रदायिक आधार पर बांट रही है. ये ताबड़तोड़ घटनाएं इसलिए हो रही हैं क्योंकि सरकार का मिजाज़ ऐसे हमलावर तत्वों के मुफ़ीद है. सरकार ये संदेश देने में नाकाम रही है कि ऐसे समूहों पर सख़्त कार्रवाई की जाएगी. यदि ऐसा हुआ होता तो ये हमले ना हो रहे होते."
भारत के कई राज्यों में गाय का मांस प्रतिबंधित है और इसे लेकर सख़्त क़ानून है. हालांकि मुसलमानों की बड़ी आबादी भैंस का मांस खाती है.
उत्तर प्रदेश में भैंस के मांस के सेवन को लेकर कोई पाबंदी नहीं है लेकिन भैंसों के स्लॉटर को लेकर स्पष्ट नियम हैं. सिर्फ सरकार से मान्यता प्राप्त स्लॉटर हाउस से मीट लेकर ही बाज़ार में बेचा जा सकता है.
मांस कारोबारी मानते हैं कि मीट को एक जगह से दूसरी जगह ले जाना जोख़िम भरा हो गया है.
घायल क़दीम क़ुरैशी के भाई आसिफ़ क़ुरैशी कहते हैं, "अब इस कारोबार में जान का जोख़िम है. गोश्त ले जाना ऐसा है जैसे अफ़ीम या गांजे की तस्करी करना. हमारे पास पूरे काग़ज़ होते हैं फिर भी गाय के नाम पर रोक लिया जाता है."
हमले में घायल चारों लोग अलीगढ़ से क़रीब तीस किलोमीटर दूर अतरौली क़स्बे के रहने वाले हैं. क़दीम क़ुरैशी का घर पक्की गढ़ी मोहल्ले में हैं. इस मुसलिम बहुल इलाक़े में मांस कारोबारियों पर भीड़ के हमले के बाद से ही गोश्त की दुकाने बंद हैं.
क़दीम का पूरा परिवार गोश्त के कारोबार में ही लगा है. वो अस्पताल में भर्ती हैं और दुकान बंद हैं. उनके बुज़ुर्ग पिता मुन्ना क़ुरैशी दुकान के बाहर उदास बैठे हैं.
मुन्ना क़ुरैशी कहते हैं, "हमने सारी ज़िंदग़ी गोश्त का ही काम किया, कभी दिक़्क़त नहीं आई. लेकिन अब हर महीने-दो महीने में गाय के नाम पर मांस छीन लिया जाता है. हमारा परिवार भारी क़र्ज़ में आ गया है."
मांस के ये कारोबारी क़र्ज़ लेकर काम करते हैं. अस्पताल में भर्ती घायल अक़ील क़ुरैशी अपने परिवार के अकेले कमाने वाले हैं. वो कहते हैं, "हमारा लाखों का मीट फेंक दिया गया. हम उधार पर काम करते हैं. घर पहले से ही गिरवी है. अब ये भारी नुक़सान हो गया. पता नहीं कब तक अस्पताल में रहना होगा. अस्पताल से छुट्टी होगी तो क़र्ज़ मांगने वाले आ जाएंगे."
इस मुस्लिम बहुल इलाक़े में डर साफ़ नज़र आता है. एक युवा अपना नाम न ज़ाहिर करते हुए कहते हैं, "मुसलमानों पर लगातार हमले हो रहे हैं. उनके खान-पान की आदतों पर सीधे हमला हो रहा है. इन हालात में मुसलमानों के पास बेबसी के अलावा कोई विकल्प नहीं हैं."
वहीं विश्लेषक मानते हैं कि इस तरह के हमले मुसलमानों के खाने-पीने की आदतों का अपराधीकरण हैं.

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में राजनीति शास्त्र के प्रोफ़ेसर डॉ. मोहिबुल हक़ कहते हैं, "काऊ विज़िलेंटिज़्म (गाय के नाम पर हिंसा) एक संगठित अपराध का रूप ले रहा है. ये एक तरह से ख़ास समुदाय की खाने की आदतों का अपराधीकरण हैं. जिन लोगों पर ये हमला हुआ है वो बहुत कमज़ोर आर्थिक वर्ग के हैं. इन कारोबारियों पर हमले से सिर्फ़ दो-चार परिवार ही बर्बाद नहीं होते बल्कि मुस्लिम बहुल इलाक़ों में मांस की आपूर्ति लंबे समय तक जाती है और इससे यहां रहने वाले लोगों की खाने की आदतें प्रभावित होती हैं. भैंस का मांस मुसलमानों की खाने की आदत का हिस्सा है. ग़रीब लोग भी इस तरह के मांस को खाते हैं. शादी ब्याह के लिए भी मांस नहीं मिल पाता है."
प्रोफ़ेसर मोहिबुल हक़ कहते हैं, "यदि प्रशासन चाहे तो सख़्त कार्रवाई कर ऐसी घटनाओं को रोक सकता है लेकिन इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी नज़र आती है. ऐसी घटनाओं से देश में नफ़रत का माहौल बन रहा है और इस नफ़रत के निशाने पर एक ख़ास समुदाय है."
इस हमले ने पहले ही संघर्ष कर रहे क़दीम के परिवार को और पीछे धकेल दिया है. चार भाइयों का ये परिवार एक छोटे घर में रहता है.
उनकी बुज़ुर्ग मां अक़ीला बेग़म कहती हैं, "हमारे पास बच्चों की फ़ीस भरने और किताबें लेने के पैसे नहीं हैं. मेरी पोतियां अपनी ज़रूरतों के लिए रोती रहती हैं. हमारे घर खाना तक नहीं बन पाता है. बार-बार हमारी दुकाने बंद हो जाती हैं. हम बहुत बेबस और बेहाल हैं."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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