राजस्थान का इतिहास वीरता, संस्कृति और स्थापत्य की मिसालों से भरा पड़ा है, लेकिन इस धरती ने कई बार भयंकर प्राकृतिक आपदाएं भी झेली हैं। इन्हीं में से एक है छप्पनिया अकाल, जो इतना भयावह था कि उसने न सिर्फ जन-जीवन को तबाह कर दिया, बल्कि लोगों की मानसिकता, रीति-रिवाज और परंपराओं तक को बदल डाला। इस भयंकर अकाल ने वर्ष 1956 विक्रमी संवत (सन् 1899 ई.) में राजस्थान के विशाल भूभाग को अपनी चपेट में ले लिया था। इस त्रासदी की छाप इतनी गहरी थी कि राजस्थान में "56" यानी 'छप्पन' अंक को अशुभ मानने की परंपरा बन गई। यही नहीं, कई पुराने कारोबारी बहीखातों में भी लोग क्रमांक 56 को खाली छोड़ देते थे।
क्या था छप्पनिया अकाल?
छप्पनिया अकाल राजस्थान के इतिहास में सबसे भयंकर और दुखद घटनाओं में से एक था। यह विक्रमी संवत 1956 में पड़ा, इसलिए इसे छप्पनिया (56 वाला) अकाल कहा गया। उस साल मानसून पूरी तरह विफल हो गया था, जिससे खेत सूख गए, नदियाँ और तालाब सूख गए, और जल संकट के कारण जानवरों की भारी मौतें हुईं। लाखों की संख्या में मवेशी खत्म हो गए और अनाज की भारी कमी ने भुखमरी की स्थिति पैदा कर दी।राजस्थान का रेगिस्तानी भूभाग पहले ही जलवायु के लिहाज से संवेदनशील था, लेकिन उस वर्ष सूखा इतना गहरा था कि कई इलाकों में एक भी दाना अनाज नहीं उगा। लोग पेड़ों की छाल, घास, मिट्टी और जानवरों की हड्डियाँ तक खाने को मजबूर हो गए थे।
56 अंक से डर क्यों?
इस अकाल ने जनमानस पर इतनी गहरी छाप छोड़ी कि लोग "56" अंक से भय खाने लगे। गांवों और कस्बों में इस अंक को अशुभ और मनहूस माना जाने लगा। जैसे ही किसी दस्तावेज, लेन-देन या व्यापारिक खाता-बही में "56" आता, लोग उस पंक्ति को खाली छोड़ देते या उसमें कोई अन्य संख्या दर्ज कर देते ताकि उस ‘मनहूस’ संख्या का इस्तेमाल न हो।यह परंपरा कई सालों तक जारी रही। बुजुर्ग व्यापारी या ग्रामीण आज भी बताते हैं कि उनके दादाओं या परदादाओं ने "56" को हमेशा टालने की कोशिश की। यह एक प्रकार की सामूहिक स्मृति बन गई थी जो अकाल के काले दिनों की याद दिलाती थी।
बहीखातों में खाली छोड़ देते थे ‘56’
राजस्थान के पुराने सेठ-साहूकार, जिनका व्यापारिक तंत्र बेहद विस्तृत होता था, अकाल के बाद अपने हिसाब-किताब में एक खास सावधानी बरतने लगे थे। जैसे ही बहीखातों में क्रमांक 56 आता, उस पन्ने या संख्या को खाली छोड़ दिया जाता। इसके पीछे सोच यह थी कि यदि 56 पर कोई लेन-देन दर्ज किया गया, तो वह घाटे में जाएगा या उस व्यापारी को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ेगा।यह परंपरा किसी धार्मिक नियम की तरह नहीं थी, लेकिन इसकी गहराई लोगों की मन:स्थिति और ऐतिहासिक अनुभवों में रची-बसी थी।
लोकगीतों और कहावतों में भी दर्ज हुआ छप्पनिया अकाल
राजस्थानी लोकसंस्कृति में छप्पनिया अकाल की छवि इतनी भयावह बन गई थी कि उसके निशान लोकगीतों, कहावतों और कहानियों में दर्ज हो गए। एक प्रसिद्ध कहावत है —"छप्पनिया काल, भूखा मरयो लाल।"इसका अर्थ है कि 1956 के साल ने लोगों को इस कदर भूखा मार दिया कि बच्चों तक को खाने को कुछ नहीं बचा। कई गांवों में उस समय जन्मे बच्चों के नाम ही ‘अकाल’, ‘कालू’, ‘छप्पन’ जैसे रख दिए गए थे, जो उस दौर की भयावहता की कहानी आज भी बयान करते हैं।
जनसंख्या और पशुधन में भारी गिरावट
छप्पनिया अकाल का असर इतना गहरा था कि कई गांव खाली हो गए। लोग स्थायी रूप से पलायन करने लगे। मवेशियों की संख्या में भारी गिरावट आई, जो ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ माने जाते थे। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 70% से अधिक पशुधन खत्म हो गया था। फसलों की विफलता और आर्थिक तंगी के कारण सामाजिक ढांचे तक टूटने लगे थे।
मनोवैज्ञानिक असर और आज की पीढ़ी
आज की पीढ़ी भले ही 56 अंक को लेकर संवेदनशील न हो, लेकिन ग्रामीण इलाकों और व्यापारिक परिवारों में इस अंक से जुड़ा डर आज भी कहीं-कहीं मौजूद है। यह भय धार्मिक नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक और मनोवैज्ञानिक प्रतीक बन चुका है — कि एक संख्या भी कभी लाखों लोगों की पीड़ा की पहचान बन सकती है।
छप्पनिया अकाल न सिर्फ एक भयंकर प्राकृतिक आपदा था, बल्कि उसने राजस्थान की सामाजिक संरचना, सांस्कृतिक सोच और मानवीय व्यवहार को बदल कर रख दिया। "56" अंक आज भी उन दुखद दिनों की याद दिलाता है जब धरती सूनी, आसमान सूखा और पेट खाली था। यह घटना हमें यह भी सिखाती है कि इतिहास केवल किताबों में नहीं, बल्कि जनमानस की आदतों और परंपराओं में भी दर्ज होता है।
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